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गणतन्त्रीय भारत में लोकतंत्रीय मूल्यों का समावेश
प्रिय पाठकों… सादर नमन…! इस आलेख ने आप पढेंगे “गणतन्त्रीय भारत में लोकतंत्रीय-मूल्यों का समावेश”… जिसके लेखक हैं डॉ. सुरेश लाल श्रीवास्तव जी… आप एक शिक्षक होने के साथ-साथ लेखन के क्षेत्र में भी रूचि रखते हैं… तो आइये पढ़ते हैं इनके द्वारा लिखा आलेख ‘गणतन्त्रीय भारत में लोकतंत्रीय मूल्यों का समावेश’…
प्राकृतिक उपागमों,संसाधनों का सन्तुलित एवं परिमार्जित रूप से विश्व मानव समाज के कल्याणार्थ उपभोग करने की प्रबल इच्छा धारा से संयुत् होकर जीने में ही मानवता के उत्कृष्टता की श्रीवृद्धि होती है। मानव के मानव अधिकार सुरक्षित रहते हैं। अपने निश्चित भूभाग पर निवास करते हुए भी ब्रिटिश दासता की घोर यंत्रणाओं से त्रस्त भारत की जनता के स्वतन्त्रता संघर्ष की विश्व गाथा में अनेकानेक हृदय विदारक घटनाओं बीच स्व शासन संदर्भित भारतीय संविधान सृजन परिप्रेक्षित विभिन्न महत्वपूर्ण अधिनियम प्रकाश में आते रहे, जो आगे चलकर स्वातंत्र्य के वरण की ओर अग्रसर राष्ट्र नायकों के लिए पथ दर्शक साबित हुईं। इन अधिनियमों में 1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट, 1823 का चार्टर अधिनियम, 1833 का चार्टर एवं 1853 का चार्टर अधिनियम तो महत्वपूर्ण रहा ही है, साथ ही 1858, 1861, 1892, 1909, 1919 तथा अति महत्वपूर्ण 1935 का भारतीय शासन अधिनियम की महती उपादेयता रही।
1932 में तैयार हुए एक श्वेत पत्र पर आधारित 1935 के भारतीय शासन अधिनियम में ‘लोकहित साधना’ की अनेक बातें विद्यमान थीं। यही कारण है कि संविधान निर्माताओं ने एक ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ की स्थापना अर्थ में इस अधिनियम को प्रमुखता से ग्राह्य किया। इसके अतिरिक्त संविधान के स्रोत स्वरूप अनेक प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रंथ भी उपादेयी रहे। ग्लैडहिल की पुस्तक “फंडामेंटल राइट्स इन इंडिया” और “इंडियन रिपब्लिक” ‘अलकजेन्ड्रो विज’ की पुस्तक “कांस्टीच्यूशनल डेवलपमेंट ऑफ इंडिया” की भूमिका भी अहम रही। संविधान स्रोतस्विनी के रूप में प्राचीन परम्पराओं पर भी संविधान विशेषज्ञों की दृष्टि दौड़ी।जैसा कि गुलामी काल में जन अपेक्षाओं पर ही कुठाराघात होता रहा,उनकी मर्यादाओं,जीवन सुरक्षा की खतरनाक परिस्थितियां अंग्रेजी शासन द्वारा पैदा की जा रहीं थीं। ऐसी दशा में मानवता के कल्याण की सोच पर भारतीय राजनेताओं का ध्यान अधिक रहा। क्या होना चाहिए, क्या नहीं होना चाहिए ये ही विचारणीय विन्दु रहे। सभी ने स्वतन्त्रता प्राप्ति एवं स्व संविधान अनुसार शासन व्यवस्था कायम करने के स्वप्न को फलीभूत करने के लिए दृढ़ संकल्पता दिखलायी।
मजबूत इरादे, कठोर श्रम साधना,अनुपम त्याग बलिदान के अचूक अस्त्र के बदौलत भारतीयों ने स्वतन्त्रता की सुनिश्चितता का सूरज जब बहुत करीब से देखा,तो संविधान निर्माण हेतु “भारतीय संविधान सभा” के गठन की प्रक्रिया को बल मिला। इस दिशा में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हृदय से 1922 में ही ये भाव प्रस्फुटित हो चुके थे कि- “भारत के लिए भारतीय ही संविधान बनाएंगे।”
प्रथमतः 1895 में संविधान सभा के निर्माण की बात उठी थी। उसके बाद 1934 में। जैसा कि स्वराज्य पार्टी ने मई 1934 में और कांग्रेस ने 1936 के फ़ैज़पुर अधिवेशन में इस मांग को दोहराया। अंततः 1942 के क्रिप्स प्रस्ताव में संविधान सभा के निर्माण को स्वीकार किया गया। गणतन्त्रीय भारत में लोकतंत्रीय मूल्यों के समावेशन की कामना से संविधान सभा के निर्माण की प्रक्रिया 1946 के कैबिनेट मिशन प्लान में दी गई। इसी के आधार पर जुलाई 1946 में संविधान सभा के चुनाव हुए।भारतीय संविधान सभा के चुनाव में “आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल मत संक्रमण प्रणाली” अपनायी गई, जिसकी कुल सदस्य संख्या 389 नियत की गई। जैसा कि संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन 09 दिसम्बर 1946 ईस्वी को हुआ। डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा संविधान सभा के अस्थायी अध्यक्ष नियुक्त हुए।आगे चलकर 11 दिसम्बर 1946 को डा. राजेन्द प्रसाद को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष नियुक्त किया गया।बी.एन. राव संवैधानिक सलाहकार नियुक्त हुए।”
जन कल्याण और विश्व शांति के हिमायती भारतीयों द्वारा एक आदर्श कल्याणकारी संविधान सृजनार्थ विश्व के 60 देशों के संविधान का अध्ययन किया गया, जिससे की विश्व मोतियों की इन लोकहित लड़ियों से एक अमूल्य संविधान सृजन का स्वप्न साकार हो सके और तंत्रों में अति विशिष्ट तंत्र लोक तंत्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो सके तथा गणतन्त्रीय भारतीय संविधान में लोकतंत्रीय मूल्यों के सुन्दर समावेशन की संकल्पना चरितार्थ हो सके।”
संविधान सभा के प्रारूप समिति के अध्यक्ष पीड़ितों, शोषितों, प्रवंचितों के मसीहा डॉ.भीमराव अम्बेडकर की ज्ञानधारा से सृजित एवं अन्य तत्कालीन भारत विभूतियों के ज्ञान निधि से स्नायित भारतीय संविधान निर्माण की प्रक्रिया चल ही रही थी कि इसी बीच स्वतंत्रता का सूर्योदय 15 अगस्त 1947 को होते ही भारतीयों ने स्वतंत्रता देवी का वरण किया,जबकि इसके सहोदर पाकिस्तान को 14 अगस्त 1947 को स्वतन्त्रता की प्राप्ति हुई।ध्यातव्य हो कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान को पारित करने का प्रस्ताव रखा और यह प्रस्ताव 26 नवम्बर 1949 को पारित हो गई। भारतीय संविधान के निर्माण में कुल 2 वर्ष 11माह और 18 दिन लगे थे। इसके निर्माण में तत्समय 63 लाख 96 हजार 729 रूपये व्यय हुए थे। संविधान सभा संदर्भित कुछ विशेष तथ्यात्मक बातें एतद् रहीं।
“संविधान सभा की स्थापना 06 दिसम्बर 1946 को हुई थी और यह 24 जनवरी 1950 को विसर्जित हुई। इसके अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और उपाध्यक्ष हरेन्द्र कुमार मुखर्जी तथा वी.टी. कृष्णमाचारी थे। पहली बार संविधान सभा की मांग सन 1895 ईस्वी में बाल गंगाधर तिलक ने उठाई थी, जबकि अंतिम (पांचवीं) बार पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1938 इसकी मांग उठाई थी। भारत-पाक बंटवारे के बाद इसके कुल सदस्यों की संख्या (389) में से 299 ही रह गए, जिनमें 15 महिलाएं, 26 अनुसूचित जाति एवं जन जाति के 33 सदस्य थे। भारतीय संविधान के निर्माणार्थ कुल 22 समितियां गठित की गईं थीं, जिनमें प्रमुख समितियां और उनके अध्यक्ष रहे-मसौदा या पारूप समिति (डॉ .भीमराव अम्बेडकर), संघ शक्ति समिति और संघ संविधान समिति (पण्डित जवाहरलाल नेहरू), वार्ता समिति, प्रक्रिया समिति, वित्त एवं स्टाफ समिति, राष्ट्रीय ध्वज तदर्थ समिति (डॉ.राजेन्द्र प्रसाद), कार्य संचालन समिति (के.एम.मुन्शी), झंडा समिति (जे.बी.कृपलानी), प्रांतीय समिति, मूलाधिकार व अल्पसंख्यक समिति (सरदार बल्लभ भाई पटेल), कार्यकरण संबंधी समिति (जी.वी.मावलंकर) और आवास समिति (पट्टाभि सीतारमैय्या)।
“स्वतंत्रता-क्रांति काल में विशिष्ट रहे 1929 के लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया था और अगले वर्ष 26 जनवरी 1930 को स्वाधीनता दिवस भी मनाया गया। इसी ऐतिहासिक तारीख़ को महिमा मण्डित करने की मंशा से सृजित संविधान की कतिपय धाराएं ही 26 नवम्बर 1949 को लागू की गईं तथा पूर्ण रूप से भारतीय संविधान आगामी 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया, जिससे कि लाहौर घोषणा की पुष्टि हो सके।इसी के साथ औपनिवेशिक शासन प्रणाली का अंत हुआ और ब्रिटेन की भारत पर प्रभुसत्ता भी अन्त को प्राप्त हो गई। भारत को ब्रिटेन की संसद ने 1947 के स्वतन्त्रता अधिनियम द्वारा डोमिनियन बनाया था। संविधान ने इस स्थिति को भी समाप्त करते हुए भारत को रिपब्लिक घोषित किया। संविधान के अनुसार प्रभुसत्ता सम्प्रति भारत की जनता में निहित है।”
संविधान की प्रस्तावना के मुताबिक देश को सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य कहा गया। इसमें ‘सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न’ से तात्पर्य- “शासन की शक्ति भारतीयों में निहित है” से है, जबकि ‘लोकतंत्रात्मक’ का अर्थ- राजसत्ता जनता में निहित है और ‘गणराज्य’को राज्य का प्रधान वंशानुगत न होकर निर्वाचित है,के रूप में परिभाषित किया गया।समाजवादी और धर्म निरपेक्ष राज्य आगे चलकर इस प्रस्तावना के अंगभूत बने।
अनुच्छेद1 (1) के अनुसार भारत राज्यों का एक संघ कहा गया। संविधान सृजन की धारा की स्वतन्त्र प्रवाह निश्चित तौर पर लोक मूल्यों को हरा भरा करने पर टिकी रही। जन कल्याण निमित्त राज-समाज व्यवस्था की अधिकांश चर्चाएं संविधान में की गईं। जरूरत है इनके व्यावहारिक अमल की। संविधान के भाग 3 के अंतर्गतउपबंधित भारतीय नागरिकों के 06 मौलिक अधिकार (समता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध रक्षा, धार्मिक स्वतंत्रता, शिक्षा एवं संस्कृति तथा सब पर भारी संवैधानिक उपचारों का मौलिक अधिकार) लोकतंत्र के प्राण स्वरूप तो हैं ही, आगे भाग 4 के अनुच्छेद 36 से 51 के बीच व्यवस्थित राज्य के नीति निदेशक तत्वों ने कल्याणकारी कार्यक्रमों की एक संहिता की निधि संविधान के अंतर्गत रखी।
भारतीय न्यायपालिका की सर्वोच्चता से प्राप्त अधिकारों को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने की दिशा में जबरदस्त पहल की गई। अब प्रश्न उठता है कि भारतीय संविधान अनुसारी शासन व्यवस्था के अब तक 72 बसन्त बीत चुके। इस अर्थ में कल्याणकारी आदर्श राष्ट्र-समाज संस्थापना दृष्टि पथ पर हमने कहाँ तक सफलता प्राप्त की। आर्थात् क्या पाया क्या खोया, इस पर हमें गाम्भीरता सेसोचना होगा। राष्ट्रीयता की प्रबल भावधारा तथा नैतिकता, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा व त्याग-बलिदान के अचूक अस्त्रों के प्रयोग से दिव्य भारतीय संस्कृति की पहचान के अपहर्ताओं के चंगुल से जिस भारत माता को छुड़ाकर उसके आदर्श वैश्विक सम्मान को राजित करने हेतु देश के वीर सपूतों ने एक से बढ़कर एक बलिदानी उदाहरण प्रस्तुत किये तथा स्वतंत्रता संदर्भित अनेक जय नादों से जो सभी दिशाएं गुंजायमान हुईं, आज उसी को विस्मृत करने का ख़ामियाज़ा भारतीय जन भुगत रहे हैं। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मनाने का महान उपक्रम प्रदूषित और मानवता विपरीत विचार व कर्मों से कलंकित किया जा रहा है। गणतंत्र दिवस अवसर पर संकल्पित हो शिक्षकों, शिक्षार्थियों, अभिभावकों, शासकों-प्रशासकों को संवैधानिक मूल्यों से अटूट सरोकारिता बढ़ानी होगी, तभी यह राष्ट्रीय पर्व महिमा मण्डित हो,जीवन के प्रत्येक आयाम पर नित नव ज्ञान-विज्ञान की अनुपम ज्योति से प्रदीप्त कर जन मन को संबलित करता रहेगा। बहुत असीम है हमारे तिरंगे की शान और महिमा। अस्तु गणतन्त्रीय भारत के लोकतंत्रीय मूल्यों के प्रति परं सचेत रहने के सद् संकल्प को पूरी ईमानदारी से व्यवहार में उतारने से ही गणतंत्र दिवस को महिमायित किया जा सकता है।
सुरेश लाल श्रीवास्तव
प्रधानाचार्य
राजकीय हाई स्कूल
जहाँगीरगंज, अम्बेडकरनगर
उत्तर प्रदेश, 9415789969
लेखक परिचय एवं अन्य साहित्यिक, शैक्षिक उपलब्धियाँ
- नाम: डॉ.सुरेश लाल श्रीवास्तव
शिक्षक, लेखक, कवि, स्तम्भकार - पिता का नाम: स्वर्गीय रामेश्वर लाल श्रीवास्तव
- स्थाई पता-ग्राम-गयासपुर, पोस्ट-गयासपुर (किछौछा) , जिला-अम्बेडकर नगर, उत्तर प्रदेश (२२४१५५) -४-मोबाइल नंबर: ९४१५७८९९६९
- जन्म-तिथि: २२जून १९६६
- शिक्षा: एम. ए. (मनोविज्ञान, मध्य इतिहास, संस्कृत, हिन्दी, पत्रकारिता, मानव अधिकार) बी.एड.।
- व्यवसाय-प्रधानाचार्य, राजकीय हाई स्कूल, जहांगीरगंज, अम्बेडकर नगर, उत्तर प्रदेश
- प्रकाशन विवरण :
१-मानवता के विविध आयाम (प्रकाशित) गद्य
२-हृदय की पुकार (प्रकाशित) कव्य - अन्य अप्रकाशित-
१-भूख, कुपोषण बनाम राष्ट्र-भविष्य
२-नारी-जीवन आधृत राष्ट्र-भविष्य
३-विश्व मानवता बनाम मानव अधिकार
४-भारतीय मानव समाज व प्रकाशित कुल रचनाओं की संख्या-लगभग ७०० से ऊपर मौलिक लेख विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में प्रकाशित। - रचनाओं/लेखों के संदर्भ में विभिन्न राज्यपालों, मुख्य मंत्रियों, प्रधानमंत्री, मुख्य सूचना आयुक्त भारत सरकार आदि द्वारा प्रशंसा पत्र की प्राप्ति।
- सम्मान पत्रों की संख्या-लगभग ४०० से अधिक
- विभिन्न समारोहों पर आधारित ८०० से ऊपर प्रकाशित खबरें। १३ दर्जन से अधिक साझा काव्य संग्रह में रचनाओं का प्रकाशन। उत्कृष्ट शिक्षक का प्रमाण पत्र, शिक्षा, स्काउट गाइड से सम्बंधित अनेक प्रमाण पत्र।
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