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गऊ
ईरान में एक फ़िल्म बनी थी १९६९ में “गऊ” । दारिउश मेहरजुई के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में इजातोल्ला इंतेजामी ने मुख्य भूमिका निभाई है। चिकित्सा विज्ञान में एक शाखा है बोनथ्रोप (Boanthropy) इसमें व्यक्ति ख़ुद को पशु समझने लगता है। पश्चिम में आज भी यह समझ पाना पहेली है कि कोई कैसे अपनी गाय से इतना प्यार कर सकता है कि ख़ुद वह पशु ही बन जाए.?
जबकि भारत में एक देहाती किसान भी मनोविश्लेषकों से ज़्यादा अच्छे से यह बात समझ सकता है और मेरे लिए पहेली यह है कि यह फ़िल्म भारत में नहीं ईरान में बनाई गई है। हर भारतीय को यह फ़िल्म देखनी चाहिए।
जब मैंने भी यह फ़िल्म देखी तो उपनिषदों के दो उदाहरण मेरी आँखों में आंसुओं के साथ ही आए। फ़िल्म में मश्त-हसन अपनी गाय से प्रेम करता है, किसी बीमारी से गाय जब मर जाती है तब वह ख़ुद को गाय समझने लगता है। नाद में चारा खाता है, गले में घण्टी बाँधता है और अपने गले में रस्सी डालकर उसी खूंटे से ख़ुद को बाँध लेता है और वहीं थान में बैठा रहता है।
गाँव वाले सोचते हैं कि यह पागल हो गया है और ईलाज कराने के लिए रस्सियों में बाँधकर शहर लेकर जाने लगते हैं। मश्त हसन वहाँ उस टीले पर जाकर अड़ जाता है जहाँ जाकर उसकी गाय रुक जाती थी। लोग उसे खींचते हैं लेकिन वह अड़ा रहता है। तभी एक आदमी डंडे से उसे पीटने लगता है और चिल्लाने लगता है, पशु कहीं का… पशु कहीं का…
उस समय पीड़ा से न कराहकर मश्त हसन अपनी आंखें मूंद लेता है आनंद से, वह सोचता है कि अहा, अब जाकर मैं अपनी गाय से एकाकार हो पाया हूँ। अब मैं अपनी गाय बन गया हूँ। रंभाकर दौड़ पड़ता है और एक पानी के गड्ढे में गिरकर मर जाता है।
तब मुझे याद आया कि गाय चलती तो श्रीराम के पूर्वज राजा दिलीप चलते थे, वह खाती तो वे खाते थे, वह बैठती तो बैठते, इतने ही एकाकार हो गए थे, गाय ही बन गए थे बिल्कुल ऐसे जैसे मश्त हसन। सत्यकाम जब वापस आया तो गुरुकुल के ब्रह्मचारियों ने कहा गुरु को, हमने गिनती कर ली है पूरी हज़ार गऊ हैं। तब गुरु ने कहा था कि हज़ार नहीं एक हज़ार एक गऊ हैं। सत्यकाम की आंखों को तो देखो ज़रा ध्यान से, यह भी गाय ही बन गया है।
पश्चिम में भले ही इसे बोनथ्रोपी में वर्णित कोई बीमारी मानें लेकिन यहाँ पूर्व में, भारत में चेतना के विकास क्रम में यह बहुत ऊंचा पायदान है। बंधुओ, उपनिषद इसकी गवाही देते हैं, आज भी गाँव देहात में पशुओं से बात करते उनके हाव भाव समझते लाखों लोग मिल जाएंगे।
पहला प्रश्न यह उठता है कि भारतीय सिनेमा क्या कर रहा है? क्या उनसे ऐसी फ़िल्म बनाने की उम्मीद की जा सकती है भारत में…? ईरानियों ने उपनिषदों की या राजा दिलीप की घटना को लेकर इतनी संवेदनशील फ़िल्म बना डाली। क्या यहाँ के निर्माता निर्देशकों के द्वारा ऐसा सम्भव है या सिर्फ़ अश्लीलता और सेट एजेंडे ही चलाने हैं फ़िल्मों में।
विमल तिवारी ‘आत्मबोध’
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