Table of Contents
कानून और किताब
कानून और किताब
कानून के पन्नों पर लिखा इतिहास
जो भी लिखा-लिखा बड़ा ही लाज़वाब विश्वास
पन्नों की बस अब यही सज़ा
पढ़ कर अमल में नहीं आता मज़ा
रहती किताब बस अलमारी में पड़ी
और अलमारी पर धूल चढ़ी
पढ़ाई तो ऑनलाईन आ गई
समय के साथ रोज़गार खा गई
पानी में भी खामियाँ इतनी
सोच भी नहीं सकते जितनी
माना ड़ाटा है असीमित
फ़िर भी नहीं जानते कीमत
देश दुनियाँ की पूरी जानकारी
ख़ोज ख़बर रहते भी अधूरी कहानी
पर ख़ुद को जाने कौन
एक दूसरे को जानते हुए भी मौन
आजकल पढ़ने को समय कहाँ
अतीत में खो गया हर इंसा
कौन पढ़ता क़ायदे
निभाता कौन वायदे
जानते सभी अंधा कानून
सबूत मांगता हर जुनून
हर कोई अकेला रह गया
बचा खुचा भावनाओं में बह गया
चाँद सदा ही सुहागन-सा आफताब
कानून और किताब…
कानून और किताब…
जब तक
जीवन का यह खेल
बस बहुत ही रेलमपेल
जब तक चल रही सांस
तभी तक कुछ बंधे आस
कई बार तो बिल्कुल अकेले
सेब होते हुए भी खाएँ केले
कभी-कभार कोई अकारण साथ
कभी भरे पूरे परिवार के बावज़ूद भी अनाथ
जीवन की डगर बड़ी अज़ीब
कोई दूर होते हुए भी बेहदद क़रीब
कभी अपनों के बीच भी कुछ दूरियाँ
साथ रहने की भी भौतिक मज़बूरियाँ
कभी ख़ुशी और कभी ग़म
कभी ज़्यादा होते हुए भी कम
सांसें थमी तो सब ख़ल्लास
न कोई उम्मीद न ही आस
न कुछ तेरा और न कोई मेरा
रोशनी होते हुए भी लगता अंधेरा
यह सारा मज़्मा ही तो तब तक़
चल रही उधार की सांसें जब तक़
जब तक़ जब तक़ जब तक़
जब तक…जब तक़ …
जान डाल कर
देखते हैअपने माध्यम से
नये इरादों सहारे
हौंसले की उड़ान भर कर
और देखते हैं
कुछ लम्बा नाप कर
सागर की ग़हराई
क्या नापनी
कोशिश तो आसमां य़ा आकाश
नापने की इस धरती से
क्योंकि कहते हैं
धरती आकाश
कभी नहीं मिलते
देखते हैं नये ईरादों में
जान ड़ाल कर
जान ड़ाल कर…
छोटी-सी ज़िन्दगी
हमारी तो बस छोटी-सी ज़िन्दगी
काम आएगी सदा ही बंदगी
क्या हार और क्यों जीत
फिर क्यों चिंतित और भयभीत
क्या भविष्य या अतीत
एक तृप्ति की जीत ख़ातिर
हार गया बस बन कर शातिर
कभी जीत में भी मिलती हार
फिर क्या ख़ुशी या मार
तब हार में भी निश्चित जीत
जब दुश्मन भी बने हमारा मीत
आख़िर तो बस प्रभू बंदगी
छोटी-सी ज़िन्दगी…
छोटी-सी ज़िन्दगी…
माँ
मतलब
खुल्ला आसमां
न कोई टोटका
न कोई टोक
सब कुछ ही तो
बे-रोक-टोक
हर पल
अच्छा समां
माँ
तब तक ही
तब तक ही…
सदा से ही तो मज़दूर रहा
जब तक मज़े से दूर रहा
तब तक ही…
जब तक अपने ही तन को
ग़ैरों सहारे अपने ही मन को
फेंक बस यूँही लुटता रहा
तब तक ही…
बजता रहा सदा साजिंद
औरों समक्ष बोट्टी मानिद्
फ़ेंक बस लुटता रहा
तब तक ही…
सोच उनकी और काम मेरा
लोगों की नज़र में वर्ग कमेरा
उनकी नज़र से घुरर्रता रहा
तब तक ही…
ख़ुद को ही सेक आंच कर
उनकी ही मर्ज़ी की साँच पर
तंदूर-सा सिकता रहा
तब तक ही…
हालातों पर मुरझा कर
उन्होंने सदा ही गुरर्रा कर
मैं ही तो मगरूर रहा
तब तक ही…
सदा ही तो बेतन रहा
फिर मिलता वेतन रहा
बिन अर्ज़ी पिलता रहा
तब तक ही…
जिम्मेवारियों से सदा लबरेज़ रहा
ताउम्र अभावों का भी कवरेज़ रहा
फटे कपड़ों-सा सिलता रहा
तब तक ही…
तब तक ही…
गांव व शहर…
जहाँ तक गांव
वहाँ आज भी छांव
पर जहाँ तक फैला शहर
बस हर पग पर कहर
क्योंकि असली चेहरा देश का
सोंधी मिट्टी के परिवेश का
हाँ शहर ब्यूटी पार्लर भांति
लिए कुछ अद्भुत क्रांति
लीपा पुता स्थान बस शहर
जहाँ हर चीज़ में मिला ज़हर
देश की आत्मा आज भी गांव
जहाँ खेत खलिहान व सद्भाव
शहर में तो कुछ भी जानकारी आधी-अधूरी
न बिल्कुल सही व न कतई पूरी
अखबार के माध्यम से
नेताओं के आराध्यम से
कुछ पैसे दे कर
बस मिला ही करती कुछ ले दे कर
रही बात पुष्टि की
स्टीक व संतुष्टि की
सच और झूठ की
कोई ठोस या ठूंठ की
रही बात विश्वसनीयता की
अपनेपन व आत्मीयता की
कोई पक्की या ठोस नहीं
शहर तो आज भी वातावरण को नुकसान
ऊँची दुकान और फीका पकवान
बस इतना ही तो अन्तर
गांव व शहर…
गांव व शहर…
सब जीते जी ही के मेले…
यह गलियाँ…महल…चौबारे
कभी रुतबा…अनख…मीनारें
कभी मेल जोल…कभी तलखियाँ
कभी हक़ीक़त में भी झलकियाँ
फिर कभी जीत कर भी हारे
कभी बिन वज़ह भी गये मारे
जहाँ सब भीड़ में ही अकेले
सब जीते जी ही के मेले…
आप मरे जग पर लो
फिर चाहे हंसों या खेल लो
चाहे कितनी ख़ुशियाँ या झमेले
सब कुछ होते हुए भी और ले ले
अपनी ही आँख बंद तो क्या देखा
फ़िर क्या दश्मलाव या कोई रेखा
जहाँ खेल भावना में ही मिलते धकेले
सब जीते जी ही के मेले…
माना सब जीते जी ही का खेल
बिन कारण ही भाग रहे हुई बस रेलम्पेल
कभी अपने ही पराये कभी ग़ैर भी अपने
बस थोड़े फ़ायदे ख़ातिर अलग मापदण्ड और नपने
मानवता की असली अलख जगा लें
मायावी दृष्टि से ख़ुद को दूर भगा लें
कुछ करें ऐसा न पड़े कभी अकेले
सब जीते जी ही के मेले…
सब जीते जी ही के मेले…
वीरेन्द्र कौशल
यह भी पढ़ें-
2 thoughts on “कानून और किताब”