
हसीन शहर
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अभय

अभय
बंदी बनी, लालसा को लिए
जिंदगी यूं ही गुजर जाती है
दासता की क़ैद में आ के जिंदगी
आजादी से डरने लग जाती है
कदम दर क़दम बढ़ाते हुए
भय सामने मंडराता जाता है
जो भी करना चाहता है आदमी
उसको वह कर नहीं पाता है
कदम बढ़ते, पीछे हट जाते
जिंदगी भय चक्र में फंस जाती है
बंदी बनी, लालसा को लिए
जिंदगी यूं ही गुजर जाती है
डर ही दुःख उपजाता है मन में
झिझक भी पैदा कर जाता है
मानव मन विचलित हो उठता
फिर वह द्वंद्वों में फंस जाता है
एक भय ख़त्म होता है उसका
राह में दूसरा सामने आ जाता है
अनवरत यह शृंखला टूटती नहीं
चलता आदमी भी रुक जाता है
परिधान भय का पहन रखा है
फिर अभय कहाँ से आएगा
भय के चंगुल में फंस के आदमी
वो आनंद कहाँ से पा पाएगा
पग पग पर पाल रखा है भय को
विस्तृत भी है इसकी सीमा रेखा
कितना दर्द दिया करता यह भय
इसको हरेक आदमी ने है देखा
मौत का भय, तो कभी रोग का भय
हर वक़्त बना रहता भय ही भय
अपयश और हानि का भय होता
अपनी रुग्णता का भी भय होता
भय की चाहर दिवारी में ही
आदमी का जीवन कट जाता है
अभय की स्थिति के अभाव में
वह फिर आगे बढ़ नहीं पाता है
इस भय दीवार को फांदना होगा
या फिर इसे तोड़ फेंकना होगा
एक बार आयेगी ज़रूर झिझक
उसे अभय तत्व को छूना होगा
सीमा रेखा भय की फिर यह टूटेगी
तब भय, अभय को पा लेगा
पूर्ण कर पाएगा दायित्वों को
आदमी फिर परम तत्व को पा लेगा
आशिकी
आशिकी कहती रहती है मुझको
कि मैं इसमें इत्मीनान रखा करूं
मगर तमन्ना मेरी मानती नहीं है
कहती है इश्क़ पाने में मैं जल्दी करूं
ख्वाहिश नहीं है कोई उसकी
जो होना है बस वह होता जाए
उसको तो ज़रा भी फ़िक्र नहीं है
कहीं मेरा मन दफन न हो जाए
आशिकी की मानूं या तमन्ना की
दोनों सूरत मुझे तबाह कर देगी
खून होना मेरे दिल का तय-सा है
यही हालत मुझे जीने नहीं देगी
अब मैं किससे राय पूछने जाऊँ
कि जिगर का खून मैं हो जाने दूं
सब्र को दोस्त बना के रह लूं या
जिंदगी को कुछ भी कर गुजरने दूं
बेटा बेटियों में फ़र्क़
यह क्या हो रहा है बच्चियों के संग
बच्चों की तरह उनका पोषण नहीं होता
कुपोषण से मज़बूत वह हो नहीं पाती
सदा उनको डर-डर के जीना ही होता
कोख माँ की कमजोर रह जाती है फिर
प्रसव के वक़्त उसे जीवन खोना होता
दबंगियों के द्वारा कभी ये कुचली भी जाती
कभी कभी अपमानित इन्हे होना भी होता
मजबूत न रह पाती मनस्थिति इनकी
दबी दबी-सी ये औरत बन के रहती है
ससुराल में दुखी बहुत होती रहती है ये
घरेलु हिंसा का दंश भी भोगती रहती है
समाज में दर्जा उसे दोयम का मिलता
उसे आगे बढ़ने नहीं दिया है जाता
बोझ समझा जाता है इन लड़कियों को
सुरक्षा के नाम पर पहरे में रखा है जाता
काश तब्दीली आ जाए ऐसी समाज में
जहाँ बेटा बेटी में फ़र्क़ नहीं हो रहा होता
आज बच्चियों के साथ यह क्या हो रहा है
बच्चों की तरह इनका पोषण नहीं होता
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