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वृद्धाश्रम
वृद्धाश्रम: मानसी जोशी
पुरातन भारतीय समाज में माँ बाप को ईश्वर कि तरह पूजा जाता था, उनकी सेवा को ही सर्वोच्च माना जाता था। इसलिए हर बेटा, बहू, बच्चे सच्चे मन से अपने माँ बाप की सेवा करते थे। परन्तु समय के चक्र के साथ-साथ भारतीय समाज की परम्परा में भी परिवर्तन आता गया।
पुरातन समय में माँ बाप अपने बच्चो को हर सुविधा देते थे, चाहे माँ बाप भूखे प्यासे ही क्यों ना सो जाए, पर वह अपने बच्चो को पाल पोसकर एक बड़ा आदमी बनाना चाहते थे, जिसके लिए मा बाप अपना सब कुछ गिरविर रखकर भी अपने बच्चों के लिए कोई कमी नहीं करते थे।
परन्तु वर्तमान समय में देखा जाए तो बच्चे अपने मुकाम को हासिल कर लेते हैं और अपनी निजी ज़िन्दगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें अपने माँ बाप की फ़िक्र नहीं होती है, वह यह भूल जाते हैं कि आज जिस मुकाम में वह हैं उसकी वज़ह सिर्फ़ उनके माँ बाप है। पर समय का कुचक्र ऐसा चला कि जब बच्चों को लगने लगा कि वह अपने माँ बाप को समय नहीं दे पा रहे हैं या माँ बाप उनके लिए बोझ बनते जा रहे हैं, तो वह स्वयं अपने माँ बाबा को वृद्धाश्रम छोड़ कर आ जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि वृद्धाश्रम में अपने माँ बाप को छोड़ने की वज़ह सिर्फ़ बेटा है, कभी-कभी बहू भी इस भूमिका को बखूबी निभा रही है।
भारतीय समाज में एक ऐसा समय था जब यह माना जाता था कि परिवार में बुज़ुर्ग का होना किसी भगवान से कम नहीं माना जाता था, परंतु वर्तमान समय में बुजुर्गो का स्थान वृद्धाश्रम तक ही सीमित हो गया है, जो कि आज के समय में एक गंभीर विषय बनता जा रहा है। यह भी आवश्यक नहीं है कि वृद्धाश्रम में सिर्फ़ गरीब घर के ही मा बाप रहते हैं, अमीर घर के माँ बाप का स्थान भी अब वृद्धाश्रम में देखा जा रहा है, इससे यह बात स्पष्ट हो गई है कि वर्तमान युग में हमारे माँ बाप की अहमियत और उनकी इज़्ज़त काफ़ी हद तक कम होती जा रही है।
ना जाने क्यों,
बच्चो को माँ बाप अब बोझ लगने लगते हैं,
जिनके कंधों पर बैठकर,
बचपन में घूमा करते थे,
देखो आज वही माँ बाप,
वृद्धाश्रम में बैठे हैं॥
विधवा पुनर्विवाह
भारतीय समाज में आज भी ऐसे लोग हैं जो विधवा स्त्रियों को शुभ कार्यों में सम्मिलित नहीं होने देते हैं। लोगों की धारणा यह है कि शुभ कार्य में विधवाओं कि परछाई तक पड़ गई तो उसे लोग अपशकुनी कहकर उसे बहुत बूरा भला कहते हैं, जिससे विधवा स्त्री के मन में स्वयं को लेकर ग्लानि शुरू हो जाती है। वह स्वयं को समाज के सामने इतना तुच्छ समझने लग जाती है, की वह किसी के सामने भी जाना पसंद नहीं करती और ना ही अपने मन की बात खुलकर किसी को बोल पाती है। विधवा स्त्रियों को हमेशा रंगहीन कपड़ों में रहने की सलाह दी जाती है साथ ही उन्हें किसी भी प्रकार का शृंगार ना करने की हिदायत भी दी जाती है।
दूसरी ओर अगर कोई विधवा स्त्री अपना पुनर्विवाह करने की सोचती है अपने बच्चो की खातिर, तो उसे समाज में ऐसी-ऐसी बातें सुनने को मिलती है कि वह पूरी तरह टूट जाती है। पर समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उनके पुनर्विवाह करने को ग़लत नहीं मानते हैं, अगर विधवा स्त्री दोबारा शादी करके अपने बच्चो के साथ-साथ स्वयं को दुनिया के रंग में दोबारा रंगना चाहती है तो हम सबको मिलकर उसका साथ देना चाहिए।
अगर वह स्त्री अपनी ख्वाहिशों को दोबारा से पूरा करना चाहती है तो हमें भी उनके कंधे से कंधा मिलाकर उनका इस ख़ुशी में साथ देना चाहिए। वह पुनर्विवाह कर जीवन सवारना चाहती हैं और समाज में विवाह विधवा पुनर्विवाह के प्रति व्यक्तियों की सोच बदलना चाहती है, क्योंकि व्यक्ति स्वतंत्र है कि अपनी ज़िन्दगी के फैसले ख़ुद करे और एक जागरूक नागरिक की तरह हमें उनका इस स्थिति में साथ देना चाहिए॥
कुछ तो लोग कहेंगे,
लोगों का काम है कहना,
नहीं है पुनर्विवाह गलत,
गलत है तो सोच इस समाज की,
जो यूंही बदनाम करते हैं,
विधवा पुनर्विवाहो की ज़िन्दगी॥
रिश्ते ऑफलाइन बनाम ऑनलाइन
प्राचीन समय में लोगों के लिए समाज, संस्कार, उत्तरदायित्व अत्यंत आवश्यक होते थे और इसी के अनुरूप है व्यक्ति व्यवहार करता था और उसके इसी व्यवहार के वज़ह से वह समाज में अपना स्थान बनाए रखता था। वर्ग, जाति, समुदाय आदि वर्गो में विभाजित होने के बावजूद भी उन लोगों में प्रेम भाव के गुण देखने को मिलते हैं। द्वेष की भावना भी मौजूद रहती हैं परन्तु उनमें फिर समझौते जैसे गुण भी देखने को मिलते थे। सभी लोगों में परिवार जैसा प्रेम, सदभाव भी देखने को मिलता था जो कि समाज के लिए एक मिसाल बनने का कार्य करता था। आपसी प्रेम के कारण व्यक्ति में खाना से लेकर रहने तक, सुख-दुःख आदि सभी में मेल मिलाप की भावना पाई जाती थी।
इसके विपरित वर्तमान युग को इंटरनेट का युग माना गया है, जिसमे सभी व्यक्ति मोबाइल, इंटरनेट, विडियो कॉल, चैटिंग आदि तक ही सीमित होकर अपने परिचितों से बातचीत करने तक सीमित हो गया है उसे समाज से कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि अब वर्तमान समय में बिना इंटरनेट के किसी का जीवन नहीं चलता है। या यूं कहे की वर्तमान युग में व्यक्ति का जीवन मशीनी युग माना गया है चाहे वह रिश्ते को लेकर हो या काम को लेकर।
व्यक्तियों के लिए अपने परिवार का दायरा सिर्फ़ विडियो कॉल और चैटिंग तक सीमित हो गया है घर के खर्चे के लिए भी रूपये ऑनलाइन द्वारा भेजे जाने लगे हैं, वह यह ज़रूरी नहीं समझते हैं कि तीन या छ माह में जाकर अपने परिवार वालों से मिलकर उनका हाल चाल जान ले। अत्यावश्यक काम होने पर भी व्यक्ति अपने परिवार वालों से मिलने में दिलचस्पी ना दिखाकर ऑनलाइन वीडियो कॉलिंग में ज़्यादा तव्वजों दिखाता है।
ऑनलाइन इंटरनेट ने समाज में सभी रिश्ते, संस्कार आदि सभी उत्तरदायित्व को कम कर दिया है, जिससे व्यक्तियों में अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारी भी बोझ की तरह लगने लगी है। ऑनलाइन रिश्ते निभाने के चक्कर में व्यक्ति अपने ही बने हुए रिश्तों को तोड़ने का काम भी बखूबी कर रहा है जिसका ज़िम्मेदार व्यक्ति स्वयं है, जो कि समाज के लिए घातक बनता जा रहा है।
अतः उपयुक्त बातों से स्पष्ट है कि प्राचीन युग के रिश्ते ही वर्तमान ऑनलाइन रिश्तों से उपयुक्त है, जिसमे प्रेम भाव व ईमानदारी देखने को मिलती है॥
रिश्तों को निभाए अगर दिल से
तो मजबूरी नहीं होती निभाने में
अटूट बंधनों में भी बंधकर नहीं टूटता रिश्ता
किसी भी मजबूरी में॥
मानसी जोशी
अल्मोड़ा (उत्तराखण्ड)
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